bhie- 144- bharat mein itihaas lekhan ki paramparaen- history most important question answer.
( परिचय )
प्रिय विद्यार्थियों इस वाले Article में हम आपको बताने वाले हैं BHIE- 144 भारत में इतिहास लेखन की परंपराएं ( Bharat mein itihaas lekhan ki paramparaen ) इसमें आपको सभी History Most important question answer - Most important question answer देखने को मिलेंगे इन Question- answer को हमने बहुत सारे Previous year के Question- paper का Solution करके आपके सामने रखा है जो कि बार-बार Repeat होते हैं, आपके आने वाले Exam में इन प्रश्न की आने की संभावना हो सकती है इसलिए आपके Exam की तैयारी के लिए यह प्रश्न उत्तर अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे। आपको आने वाले समय में इन प्रश्न उत्तर से संबंधित Video भी देखने को मिलेगी हमारे youtube चैनल Eklavya ignou पर, आप चाहे तो उसे भी देख सकते हैं बेहतर तैयारी के लिए
1) ऐतिहासिक परंपरा क्या है औपनिवेशिक विद्वानों के भारत में ऐतिहासिक चेतना की विद्वत्ता के संबंध में क्या विचार है?
What is a historical tradition? What are the views of colonialist scholars about India having any historical sense?
भारत का इतिहास बड़े लंबे समय से चला आ रहा है इतिहास को समझने के लिए विद्वानों को अपने दृष्टिकोण में बदलाव करना पड़ा इस बदलाव के बाद भारत की बहुत सी ऐतिहासिक घटनाएं और परंपराएं विश्व के सामने उजागर हुई।
ऐतिहासिक परंपरा का अर्थ –
- ऐतिहासिक परंपरा का सृजन करने के लिए तीन तत्वों का होना आवश्यक है
- अतीत की कुछ ऐसी घटनाएं जो समाज के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई हो।
- इन घटनाओं को इनके कालक्रम के अनुसार व्यवस्थित करना ।
- उन घटनाओं को समाज की आवश्यकताओं के अनुसार दर्ज किया गया हो।
- इसीलिए अतीत की सभी घटनाओं को इतिहास नहीं कहा जा सकता।
- ऐतिहासिक परंपरा बनने के लिए इन घटनाओं का यथार्थ रूप में होना और कालक्रम में व्यवस्थित होना आवश्यक है तथा यह समाज में अपना प्रभाव डालती हो
- तभी यह ऐतिहासिक परंपरा कहलाती है।
औपनिवेशिक विद्वानों के द्वारा भारत में ऐतिहासिक चेतना पर विचार-
सभ्य सभ्यता की कमी -
औपनिवेशिक विद्वानों का भारत के विषय में यह विचार था
कि भारतीय इतिहास में किसी भी प्रकार की सभ्य सभ्यता नहीं पाई गई है
यह अशिक्षित लोगों का इतिहास है जिसके अंतर्गत कोई भी सीखने जैसी चीजें नहीं है।
वास्तुकला की अनदेखी -
औपनिवेशिक विद्वानों द्वारा भारतीय इतिहास में पाई गई वास्तुकला की अनदेखी की गई उनके अनुसार यूरोपीय वास्तुकला सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी
जिसमें ज्यामितीय का प्रयोग किया जाता था परंतु भारतीय वास्तुकला को जांचने परखने के बाद उनके विचार में बदलाव देखने को मिला इसी कारण आज ताजमहल विश्व के सात अजूबों में शामिल है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव –
औपनिवेशिक विद्वान भारत में किसी भी प्रकार के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इनकार करते रहे वे यूरोप को ही विज्ञान का जनक मानते हैं परंतु शल्य चिकित्सा, विज्ञान की कई खोज और सभ्यताएं भारत में पाई गई है।
अशिक्षा का पिटारा –
औपनिवेशिक विद्वानों के अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप अशिक्षित लोगों का पिटारा था। उनके अनुसार भारतीय केवल रूढ़िवादी परंपरा पर भरोसा करने वाले लोग हुआ करते थे परंतु भारतीय इतिहास में वैदिक काल से ही लोगों में शिक्षा की बात बताई गई है
पौराणिक समय में भारतीय इतिहास में महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिया जाता था।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि औपनिवेशिक काल के दौरान इतिहासकार भारत के इतिहास के बारे में अपनी एक विचारधारा बना चुके थे जो समय के साथ परिवर्तित होती चली गई हड़प्पा सभ्यता की खोज से विश्व की सबसे पौराणिक सभ्य सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप में पाई गई इसके साथ ही स्वच्छता और वास्तुकला का उदाहरण भी हड़प्पा सभ्यता में देखा जा सकता है। हस्त कौशल और गणित की माप तोल में भी भारत पीछे नहीं रहा।
इतिहास लेखन में अक्षम –
औपनिवेशिक काल के दौरान कई विद्वानों का कहना था कि भारतीय इतिहास चेतना के प्रति निष्क्रिय है। प्राचीन भारत में हुई घटनाओं की कोई लिखित साक्ष्य प्रमाणित नहीं है जिसके कारण वे प्राचीन भारत के इतिहास को मानने से इनकार करते रहे। अधिकतर साक्ष्य धार्मिक आधार पर प्राप्त हुए हैं इनका इतिहास से कोई संबंध नहीं माना जाता।
अपरिवर्तनशील-
औपनिवेशिक विद्वानों ने भारतीय इतिहास को स्थिर और अपरिवर्तनशील बताया है
उनके अनुसार एक स्थिर और अपरिवर्तनशील समाज को इतिहास में स्थान देने की आवश्यकता नहीं है।
औपनिवेशिक इतिहासकार भारतीय लोगों को शासन करने के लिए सक्षम और अयोग्य मानते थे।
2) महाभारत कथा रामायण के विशेष संदर्भ में महाकाव्य परंपरा के महत्व को रेखांकित कीजिए?
Underline the importance of epic tradition with emphasis on the Mahabharat and Ramayan?
महाकाव्य प्रारंभिक रूप से मौखिक रचनाएं थी जिसके बाद के समय में एक कथा के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक यह महाकाव्य लोगों द्वारा चुने गए यही कारण है कि इन महाकाव्य की तिथि का निर्धारण करना एक बड़ी समस्या है भारत में मुख्य रूप से दो महाकाव्य रामायण और महाभारत है इनका समय एक नहीं है इसीलिए इनके लेखक भी एक नहीं हो सकते महाभारत एक वंश आधारित समाज की पृष्ठभूमि की ओर संकेत करता है।
रामायण और महाभारत धार्मिक ग्रंथ ना होकर एक महाकाव्य है जिनके अंदर धर्म की शिक्षा के अलावा शस्त्र विद्या मनुष्य का कर्तव्य समाज की परंपरा आदि का भी वर्णन किया गया है महाकाव्य मौखिक रूप होने के कारण इसकी प्रमाणिकता पर कई बार प्रश्न भी उठे है क्योंकि यह महाकाव्य कई समय बाद लिखित रूप में बदले गए।
महाकाव्यों के महत्व-
मनुष्य की कर्तव्य का वर्णन-
रामायण और महाभारत दोनों ही महाकाव्य में प्रत्येक स्थान पर मनुष्य के कर्तव्य के बारे में जानकारी दी गई है श्री कृष्ण ने भी युद्ध के दौरान अर्जुन को जीवन का सत्य दिखाते हुए मनुष्य के कर्तव्य बताए हैं।
राज व्यवस्थाओं का वर्णन -
महाकाव्यों के अंतर्गत राज व्यवस्था में एक राजा या मुखिया के कर्तव्यों का भी वर्णन किया गया है किस प्रकार एक राजा को अपने परिवार से पहले अपनी संतान यानी जनता को सर्वोपरि रखना आवश्यक है। राजा को घमंड में ना रह कर लोगों के बीच लोगों को अपना मान कर रहना आवश्यक है इसीलिए महाभारत में युधिष्ठिर जनता की प्रिय थे वही दुर्योधन में जनता के प्रति क्रूरता दिखाई गई है।
राजा की स्थिति-
महाकाव्य के अंतर्गत राजा की स्थिति को भगवान के बाद दूसरे स्थान पर रखा गया है
राजा प्रजा के लिए उनके पालनहार की तरह देखा जाता था
जनता अपने राजा पर भरोसा कर विपत्ति आने पर राजा के पास जाती थी महाकाव्य से उस समय की पैतृक व्यवस्था के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है किस प्रकार बड़े पुत्र को राज -पाठ दिया जाता था परंतु कई जगह या नियम तोड़ा भी गया है इसके उदाहरण महाभारत में देखने को मिलते हैं।
देखा जा सकता है कि दोनों ही महाकाव्य अलग-अलग समय में लिखे गए तथा घटित हुए जहां महाभारत चंद्रवंशी लोगों की कथा बताता है वही रामायण सूर्यवंशी लोगों की कथा का वर्णन करता है। महाकाव्यों के अध्ययन से सामाजिक आर्थिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है महाकाव्य को केवल धार्मिक दृष्टि से ना देखकर उनके अन्य पहलुओं को भी देखना अति आवश्यक है।
3) संगम काव्य के द्वारा किस प्रकार की ऐतिहासिक चेतना प्रदर्शित होती है?
What kind of historical consciousness is revealed through the sangam poem? Elaborate.
संगम साहित्य सबसे प्राचीन साहित्य स्रोत है जो तमिलकम अर्थात शुरूआती तमिल भाषा में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है।यह प्राचीन समाज में लोकप्रिय विषयों पर छोटे और लंबे काव्य का संग्रह है।
वीर साहित्य-
संगम साहित्य में कई कविताओं में धावा बोलकर लूटपाट करने की बातें बताई गयी है
कुछ कविताओं में दुल्हनों के अपहरण और कब्जा करने की बात भी बताई गई है
यह सभी वीर साहित्य के लिए सामान्य विषय हैं
यह घटनाएं योद्धाओं और लड़ाईयों में एक वीर युग को उजागर करती है।
भौगोलिक स्थिति-
संगम साहित्य के अध्ययन के साथ दक्षिण भारत की भौगोलिक स्थिति भी जानने को मिलती है। जिस प्रकार की भौगोलिक स्थिति होती है उसी प्रकार वहां रहने वाले मनुष्य अपने आजीविका का साधन चुनते हैं इतिहास को जानने में संगम साहित्य भौगोलिक और व्यावसायिक दृष्टिकोण से अति महत्वपूर्ण रहा है।
साहित्य के अनुसार दक्षिण भारत को 5 क्षेत्रों में विभाजित किया गया है
कुरिंजी (जंगल और पर्वतीय क्षेत्र) - यहां के निवासी शिकार और झूम खेती के लिए बहुत प्रसिद्ध थे जो अपना जीवन निर्वाह पशुओं तथा झूम खेती द्वारा ही किया करते थे।
मुल्लई (निचली पहाड़ियों का पशुचारण क्षेत्र) - यह पशुपालकों के लिए एक अच्छा क्षेत्र था इसीलिए इस क्षेत्र में सभी पशुपालक हुआ करते थे जो उनका प्रमुख व्यवसाय बना।
मरुथम (उपजाऊ कृषि मैदान) -यहां पर लोग अपनी आर्थिक गतिविधि के लिए कृषि क्रियाकलाप किया करते थे कृषि क्रियाकलापों में मुख्य रूप से चावल की खेती किसानों द्वारा की जाती थी।
नेयतल (समुद्री तट) -समुद्र तट के पास होने के कारण यहां लोगों का व्यवसाय मुख्य रूप से मछली पकड़ना और नमक बनाने का था।
पलाई (शुष्क क्षेत्र)-शुष्क होने के कारण इस क्षेत्र के लोग लूट, डकैती के लिए बदनाम थे।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि संगम साहित्य से दक्षिण भारत की भौगोलिक और व्यवसायिक गतिविधियों का पता चलता है।
सौंदर्य की प्रशंसा--
संगम साहित्य कोई धार्मिक साहित्य ना होकर नायक नायिकाओं की प्रशंसा करने वाला कविताओं से भरा एक ग्रंथ है। इसमें पर्यावरण की सौंदर्यता का भी वर्णन किया गया है।
जीवन शैली का वर्णन-
संगम का विषय इतिहास में लोगों की जीवनशैली का भी पता चलता है शहर और गांव के बीच किस प्रकार का रहन सहन व संसाधन हुआ करते थे हमें यह जानकारी ऐतिहासिक काव्य से प्राप्त होती है। मणिमेकलई और शीलप्पदिकारम दोनों लेख शहरी जीवन के विवरण पर लोगों का ध्यान केंद्रित करते हैं। कावेरिपट्टनम जिसे पुहार के नाम से जाना जाता है इसका उल्लेख एक बंदरगाह, व्यापारियों के निवास स्थान की तरह किया गया है। ग्रामीण क्षेत्रों से नावों द्वारा तोहार पहुंचने वाले धान के संदर्भ में भी विवरण प्राप्त होता है यहां कोच्चिपुरम, मदुरई जैसे अंतर्देशीय व्यापार केंद्र विस्थापित थे।
काव्य साहित्य के बहुत से उदाहरण देखने को मिलते हैं जैसे राजाओं द्वारा लिखे गए काव्य कालिदास के काव्य संगम काव्य आदि सभी काव्य में ऐतिहासिक समाज का विवरण देखने को मिलता है। संगम काव्य ने तमिल भाषा के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
4) भक्ति संतचरित ग्रंथों पर एक टिप्पणी लिखिए?
Write a note on bhakti hagiographic narratives?
संतचरित लेखन ऐसा साहित्य है जो संतो और शहीदों के जीवन की महिमा- मंडल करके लेख में प्रकाशित करता है एक प्रकार से कहा जा सकता है कि संतचरित लेखन एक प्रकार के जीवनीपरक आख्यान है जो अपने विषय को बिना आलोचना हुए प्रस्तुत करता है
यह अपनी भाषा से विषय को और अलंकृत रूप प्रदान करता है धार्मिक नायकों और चमत्कारी घटनाओं का वर्णन भी संतचरित लेखन के अंतर्गत मूल विशेषता है।
संतचरित के अंतर्गत वैष्णव तथा संतों का वर्णन कुछ इस प्रकार से है।
वैष्णव संतचरित लेखन
मध्यकालीन संतों से संबंधित परंपरा को अनंतदास की रचनाओं में खोजा जा सकता है 16वी शताब्दी के अंत में कबीर, रैदास, धन्ना और पीपा के संतचरितो की रचना की गई थी।
अनंतदास की परचईयाँ -
17वी शताब्दी की शुरुआत में रामानंद के अनुयायियों में से दो वैष्णव संतचरित लेखकों नाभादास और अनंतदास ने संतचरित लिखना प्रारंभ किया इसमें अनंतदास विशेष रुप से कबीर ,पीपा ,धन्ना ,नामदेव और रैदास के जीवन परिचय से सरोकार रखते थे इन परचईयो (परिचय) की भाषा ब्रज और हिंदी की अन्य पश्चिमी बोलियो का मिश्रण है।राजस्थान के मेवासा में स्थित रामानंदी मठ में रहते हुए उन्होंने यह रचनाएं की।
नाभादास की भक्तमाला –
नाभादास ने भक्तमाला की रचना की थी जो वैष्णव संत चरित लेखन के क्षेत्र में एक महान कृति है परंतु बाद के समय में उन्होंने भक्ति संत चरित साहित्य के लिए अपना पथ प्रदर्शित किया नाभादास की भक्तमाल में पौराणिक और ऐतिहासिक भक्तों के साथ में प्रस्तुत मुख्य वृतांत का वर्णन है। नाभादास की भक्तमाल वास्तव में कोई जीवनी प्रकृति नहीं है और ना ही यह भक्तों के जीवन से बहुत अधिक संबंध प्रस्तुत करती है इन्होंने लेखन का आधार वैष्णव भक्ति को ही स्वीकार किया इन्होंने जीवनी पर अधिक जोर ना देकर उनके विचारों मूल्य और शिक्षाओं के संदर्भ में अधिक महिमा-मंडल करते हुए अपनी रचनाएं प्रस्तुत की अनंतदास से विपरीत इन्होंने घटनाओं का अत्यधिक वर्णन नहीं किया।
जन्म साखी साहित्य -
जन्म साखियां गुरु नानक के जीवन वृतांत पर आधारित है कई विद्वानों ने गुरु नानक के ऐतिहासिक जीवन को की पुनर्रचना के संदर्भ में जन्म साखी साहित्य के ऐतिहासिक महत्व का आकलन किया है। जन्म साखी को गुरु नानक के जीवन के संदर्भ में ऐतिहासिक स्रोत के रूप में नकारा नहीं जा सकता इसका प्राथमिक मूल्य प्रारंभिक शिक्षा की आवश्यकता और आकांक्षाओं के संदर्भ में लेकर है इस जन्म साखी में लेखकों ने गुरु नानक की पंजाब के सूफियों से भेंट का वर्णन भी शामिल है।
सागर और बोध साहित्य -
- अधिकतर कबीरपंथी साहित्य कई प्रकार के सागर और पौधों से मिलकर बना है
- इसमें से अधिकांश की रचना 19वीं शताब्दी में हुई थी
- यद्यपि अनुराग सागर की रचना 18वीं शताब्दी के आखिर में मानी जाती है।
- अनुराग सागर छत्तीसगढ़ के कबीर पंथियों द्वारा लिखा गया पहला ग्रंथ है।
- भक्ति संतचरित ग्रंथ संतो के बारे में लिखी गई जीवनी पर आधारित है।
- अलग-अलग समय में लोगों द्वारा अपने अनुसार यह जीवनियॉ लिखी गई है।
5) तीर्थ वंशावली परंपराओं की चर्चा कीजिए?
Discuss the teertha genealogical traditions?
तीर्थ वंशावलियों को भारत के विभिन्न तीर्थ स्थानों में वंशो का वर्णन ब्राह्मण द्वारा व्यवस्थित और दर्ज किया जाता है। साधारण अर्थ में तीर्थ वंशावली ओ का अर्थ है ब्राह्मण द्वारा किसी व्यक्ति के कुल और वंश की जानकारी रखना। हरिद्वार, कुरुक्षेत्र और पूरी जैसे विख्यात केंद्रों में आज भी यह परंपरा देखने को मिलती है भारतीय संस्कृति में तीर्थ स्थानों पर जाना हमेशा से एक अभिन्न अंग रहा है इन स्थानों पर जाकर व्यक्ति अनुष्ठान करवाता है जिसे पुरोहित द्वारा संपन्न किया जाता है पुरोहित अनुष्ठान के लिए व्यक्तियों से उनके कुल जन्म स्थान ,पिता का नाम आदि जानकारी अवश्य पूछते हैं। अक्सर किसी एक विशेष वंश परिवार के दस्तावेज एक सुनिश्चित पुरोहित द्वारा पीढ़ियों तक संभाल कर रखे जाते हैं इस परंपरा को भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है।
जगन्नाथ मंदिर में इस परंपरा को वारिजा या वारजा कहते हैं। वारजा की व्यवस्था मंदिरों में सेवाओं का ही एक हिस्सा है इसे विशेषकर प्रतिहारी पंडो द्वारा संपन्न किया जाता है यह तीर्थ यात्रियों को सेवा प्रदान करते हैं।
हरिद्वार में इन दस्तावेजों को बंशावली कहा जाता है इसे दो भागों में विभाजित किया गया है तीर्थ पुरोहित और महा ब्राह्मण।
कामाख्या मंदिर असम में सेवादारों द्वारा इस व्यवस्था को व्यवस्थित किया जाता है। जिन्हें बढदेवडी, नानांदेवड़ी, पंडा नाम से भी जाना जाता है इन्हें स्थानीय स्तर पर जात्रिक खाता के रूप में भी जाना जाता है।
यह परंपराएं एक प्रकार की ऐतिहासिक चेतना की ओर संकेत करती है जिन्हें बड़े सुंदर माध्यम से व्यक्त किया जाता है यह दस्तावेज मूल रूप से ज्ञान कराते हैं कि मनुष्य का संबंध उसके वर्तमान सेना होकर पूर्वजों की परंपरा से संबंधित रहा है। परंतु इन दस्तावेजों में अधिकांश तिथियां दर्ज नहीं की गई है यह दस्तावेज केवल 18वीं शताब्दी में विश्वसनीय है।
6) जेम्स मिल के विशेष संदर्भ में औपनिवेशिक इतिहास लेखन के प्रमुख दृष्टिकोण का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए?
Critically examine main ideas of colonial historiography with special reference to James mill?
औपनिवेशिक इतिहास का लेखन मुख्य रूप से ब्रिटिश हुकूमत के अंतर्गत किया गया था। औपनिवेशिक इतिहास लेखन में एकरूपता नहीं है। औपनिवेशिक इतिहास लेखन स्वयं के अंदर ही अलग-अलग प्रवृतियां लेकर समाया हुआ है जो कभी-कभी एक दूसरे का विरोध भी करती हैं। औपनिवेशिक इतिहासकारों की संख्या बहुत कम है। जेम्स मिल और हेनरी इडियट ने भारतीय सभ्यता के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाया था दूसरी और इतिहासकार माउंट स्टुअर्ट तथा एल्फिन्स्टन ने भारतीय सभ्यता के प्रति कम आलोचक रुख अपनाया।
जेम्स मिल के संदर्भ में औपनिवेशिक इतिहास लेखन का दृष्टिकोण-
रॉबर्ट ओर्मे भारत के पहले आधिकारिक उपनिदेशक इतिहासकार थे जेम्स मिल को उपनिदेशक इतिहास लेखन के संस्थापकों में अग्रिम माना जाता है
उनकी हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया 6 भागों में प्रकाशित हुई
जिसमें पहले तीन भाग मध्यकालीन भारत तथा बाद के तीन भाग ब्रिटिश शासन के भारत के बारे में लिखे गए हैं।
उनकी किताब में भारत के प्रति दीर्घकालीन और सबसे पुराने पूर्वाग्रह शामिल थे
जेम्स मिल कभी भारत नहीं आए थे कि किसी भी भारतीय भाषा से परिचित नहीं थे।
जेम्स मिल की किताब में पक्षपात भरा इतिहास दिखाई देता है।
जेम्स मिल ने भारतीय सभ्यता विशेषकर हिंदू सभ्यता को नीचा दिखाने के लिए कई बातें लिखी परंतु फिर भी उनकी पुस्तक युवा शिविर सेवकों के लिए पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकार की जाती है।
जेम्स मिल ने भारतीय इतिहासकारों को तीन भागों में बांटा
हिंदू - मुस्लिम और ब्रिटिश उनका विश्वास था कि ब्रिटिश के भारत आगमन से पहले सभी भारतीय शासक निरंकुश और सत्तावादी थे
सभ्यता की उपलब्धि के लिए सभी पैमानों पर मिलने भारत को विभिन्न देशों के बीच एक निचले स्थान पर रखा तथा यूरोप को सर्वश्रेष्ठ बताया।
जातीय भेदभाव -
जेम्स मिल ने भारतीय समाज में चल रही जाति व्यवस्था को समाज की एक घृणित अव्यवस्था कहा उनके अनुसार निरंकुश राजा और अंधविश्वासी पुरोहित व पंडितों ने हिंदुओं को मानव जाति का सर्वाधिक दासता पूर्ण भाग बना दिया।
हिंदू धर्म की निंदा -
जेम्स मिल ने अपनी किताब में कई स्थानों पर हिंदू धर्म को निचले स्तर का बताया है उनके अनुसार हिंदू धर्म को आस्था की एक ऐसी असंगत और अतार्किक अवस्था मानते थे जिसमें संपूर्ण रूप से ब्राह्मण लोगों का प्रभुत्व था और जिसे बेमिसाल अस्पष्टता की भाषा द्वारा लिखा गया था। जेम्स मिल को प्राचीन वेद और ग्रंथ पूर्ण रूप से अस्पष्टता और अज्ञानता से भरे असंगत अनिश्चित क्रम से दिखाई पड़ते थे।
जेम्स मिल ने इतिहास लेखन में एक पक्षपात भरा रुख अपनाया है अपनी किताब में उन्होंने केवल भारत के बारे में निंदा तथा ब्रिटिश द्वारा किए गए भारत के लिए कार्य कहीं अधिक वर्णन है।
7 ) अशोक के अभिलेखों पर एक टिप्पणी लिखिए
Write a note on the Ashoka edicts?
- अभिलेख इतिहास के पुनर्निर्माण, विशेषकर प्रारंभिक भारत के राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण में सबसे अधिक मूल्यवान स्रोत के रूप में साबित हुए हैं
- अभिलेखों के द्वारा इतिहास की जानकारी प्राप्त करना बड़ा आसान हो जाता है।
- साहित्यिक स्रोत इतिहास को अधिक विश्वसनीय बनाते हैं।
- अभिलेख का अर्थ- किसी ठोस सतह जैसे- ताम्रपत्र, मोहरे, धातु है मंदिर की दीवारें, लकड़ी के पत्तों, कब्र, स्मारक, चट्टान, खंभो, ईटों मूर्तियों आदि पर कोई भी लेखन कार्य अभिलेख कहलाता है।
अभिलेख के प्रकार
1) राजाओं के राजकीय आदेश
2) विजय- शासन /प्रतिष्ठा शासन / प्रशस्तिया
3) आमजन के अभिलेख
अशोक के अभिलेख
1837 तक अशोक एक प्रसिद्ध शासक नहीं था ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त बंगाल में एक प्रशासनिक सेवक जेम्स प्रिंसेप का सामना एक ब्राह्मी शिलालेख से हुआ जिसमें देवप्रिया यानी देवताओं का प्रिय नामक एक राजा का उल्लेख था इसकी तुलना श्रीलंका के ग्रंथ महावन से की गई और यह निष्कर्ष निकाला गया कि शिलालेख में उल्लेखित राजा वास्तव में अशोक था। ब्राह्ममी लिपि की खोज से अशोक जैसे एक महान राजा का इतिहास सभी लोगों के समक्ष प्रस्तुत हो सका।
अशोक के अभिलेख 3 भाषाओं प्राकृत ,यूनानी और अमाइक में तथा चार लिपि मे खरोष्ठी, ब्राह्ममी, अमाइक तथा यूनानी में लिखे गए थे। गांधार क्षेत्र में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग होता था अशोक के अभिलेख प्राकृत भाषा में लिखे गए थे जो उसके विशाल साम्राज्य में फैले हुए थे। इसका विस्तार उपमहाद्वीप के पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर दक्षिण में मैसूर के पठार तक फैला हुआ था।
अशोक के अभिलेखों में 14 वृहद अभिलेख तथा 7 स्तंभ लेख और कुछ लघु शिलालेख है।
वृहद शिलालेख निम्न स्थानों पर प्राप्त हुए हैं-
गिरनार (गुजरात के जूनागढ़ के निकट )
सोपारा (महाराष्ट्र )
भुवनेश्वर (उड़ीसा )
जोगाड़ (उड़ीसा)
कलसी (देहरादून, उत्तराखंड)
मानसेहरा और शाहबाजगढ़ी (पाकिस्तान)
स्तंभ लेख की स्थिति-
कौशांबी (उत्तर प्रदेश)
दिल्ली एवं मेरठ
लौरिया अरेराज( पूर्वी चंपारण जिला बिहार(
लौरिया नंदगढ़ ( पश्चिम चंपारण जिला बिहार)
रामपुरवा (पश्चिमी चंपारण जिला बिहार)
साची (भोपाल मध्य प्रदेश) वाराणसी
अशोक के शिलालेख का महत्व-
विशाल साम्राज्य की जानकारी-
अशोक के शिलालेख उसे मौर्य साम्राज्य के विशाल साम्राज्य की जानकारी प्राप्त होती है यह साम्राज्य की सीमाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन करता है।
व्यापारिक दृष्टिकोण का ज्ञान
अशोक के अभिलेखों से मौर्य साम्राज्य के नेपाल का भी पता चलता है शिलालेखों में महत्वपूर्ण स्थानों मार्गों का वर्णन किया गया है कई शिलालेख अशोक के द्वारा प्रशासनिक कार्य के लिए बनवाए गए थे
जिसमें प्राथमिक क्षेत्र में कच्चे माल पहुंचाने और उपलब्धता का वर्णन किया गया है।
समाज का वर्णन
शिलालेखों में साम्राज्य के अंदर विविध मूल के निवासी और संस्कृतियों का भी उल्लेख प्राप्त होता है उदाहरण के लिए उत्तर पश्चिमी में युवानो और कंबोजो के बारे में कहा गया है पश्चिम भारत के भागों में दक्कन में रहने वाले लोगों का भी वर्णन हमें प्राप्त होता है।
अहिंसा का रास्ता अपनाना
इसमें कोई शक नहीं कि अशोक के अभिलेखों से अहिंसा के सिद्धांत को अपनाने की बात कहीं गई है इस विचार को फैलाने के लिए अशोक ने कई शिलालेख और अभिलेख भी लिखें।
कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने शांति का मार्ग अपनाकर अहिंसा के सिद्धांत का पालन किया
निष्कर्ष -
इस प्रकार देखा जा सकता है कि महान सम्राट अशोक द्वारा अपनी बातों को विशाल साम्राज्य में फैलाने के लिए शिलालेख का प्रयोग किया गया अशोक के प्रमुख शिलालेखों की संख्या 21 है जिसमें 14 वृहद शिलालेख तथा 7 स्तंभ लेख है अन्य कुछ छोटे स्थानों पर लघु शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं। शिलालेख इतिहास को समझने के लिए अति आवश्यक साक्ष्य साबित होते हैं।
8 ) अबुल फजल के लेखन पर एक टिप्पणी लिखिए
Write a note on Abul Fazl's writings.
- अबुल फजल भारत के महान इतिहासकारों में से एक थे
- यह अकबर के नौ रत्नों में भी शामिल थे
- अबुल फजल द्वारा अकबरनामा की रचना की गई
- अकबरनामा में आदम से लेकर अकबर के शासन काल के 46 सालों का वर्णन किया गया है
- अब अबुल फजल द्वारा महाभारत का फारसी में अनुवाद रज्मनामा (युद्धों की किताब) की प्रस्तावना भी लिखी गई। अबुल फजल अकबर का अति प्रिय व्यक्ति था
अबुल फजल की लेखन की विशेषता-
इसमें कोई शक नहीं कि अबुल फजल अपने समय में एक महान लेखक थे उनके द्वारा की गई रचनाएं आज भी बहुमूल्य है। इन रचनाओं की अपनी कुछ विशेषता इस प्रकार है।
भाषा
मुगल काल में मुगलों की औपचारिक भाषा फारसी थी बाबरनामा व हुमायूंनामा दोनों ही फारसी भाषा में लिखे गए थे उसी प्रकार अकबरनामा/ आईन-ए-अकबरी भी फारसी भाषा में लिखी गई परंतु अबुल फजल ने इतिहास लेखन की कई नई तकनीकों का इजाद किया जिसमें अरबी, फारसी और भारतीय दृष्टिकोण का मिश्रण शामिल था। अबुल फजल को संस्कृत ,फारसी, हिंदी ,अरबी और कई अन्य भाषाओं का बहुत अच्छा ज्ञान था।
सांख्यिकी आंकड़ों का पक्का होना
अबुल फजल को आंकड़ों के संग्रह तथा उचित जांच परख के बाद ही सांख्यिकी आंकड़ों को सतर्कतापूर्वक अपने लेख में लिखा करते थे आईन-ए-अकबरी में कई स्थानों पर सटीक आंकड़ों का वर्णन किया गया है अधिकारिक दस्तावेजों का इस्तेमाल कर आंकड़ों को इकट्ठा किया गया जिसके बाद ही आंकड़ों को लेख में लिखा जाता था। अबुल फजल ने घटनाओं को एक व्यवस्थित क्रम से लिखा आईन-ए-अकबरी के अंदर प्रत्येक प्रांत से संबंधित प्रशासनिक और राजस्व संबंधित जानकारी का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
सुलह कुल की नीति
अबुल फजल ने आईन-ए-अकबरी में सुलह कुल की नीति का वर्णन किया है इस नीति के अंतर्गत शासन चलाने हेतु सभी धर्मों तथा विभिन्नता को सम्मान देना आवश्यक है।
अबुल फजल इस्लामिक लेखकों के लेख इस्लाम बनाम धर्म के विचार के खिलाफ था। अबुल फजल का विचार शांति और निष्पक्षता पर आधारित था।
अकबर के प्रति श्रद्धा
अबुल फजल प्रत्येक लेख में उसकी अकबर के प्रति श्रद्धा दिखाई देती है
अबुल फजल ने अकबर को प्रत्येक स्थान पर सर्वोच्च बताया है।
अकबर के प्रति श्रद्धा ही फल केले का एक नकारात्मक पक्ष भी है
कई इतिहासकार अबुल फजल को अकबर के प्रति पक्षपाती बताते हैं अबुल फजल ने अकबर को श्रेष्ठ बादशाह के रूप में पेश किया है परंतु किसी भी लेख में अकबर के बारे में कोई नकारात्मक बात का वर्णन नहीं है जो यह दिखाता है कि यह अबुल फजल का एक पक्षपाती रुख है।
अबुल फजल एक महान लेखक , इतिहासकार रहा था। अबुल फजल अकबर के प्रति पक्षपाती रूप में दिखाई पड़ता है परंतु उसके द्वारा दिए गए समय और साक्ष्य इतिहास को समझने की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण साबित होते हैं
अबुल फजल की हत्या जहांगीर के आदेश पर वीर सिंह बुंदेला द्वारा की गई।
9 ) राष्ट्रवादी इतिहासकारों के प्रमुख तर्कों की व्याख्या कीजिए
Explain the main arguments of the nationalist historians.
यूरोपीय इतिहासकारों ने 19वीं सदी में इतिहास लेखन प्रारंभ कर दिया था
इतिहास लेखन के साथ उन्होंने तथ्यों पर विश्वास करने की बजाय अपने विचारों पर विश्वास किया
स्वयं की सभ्यता को श्रेष्ठ बनाने की विश्वास की वजह से उन्होंने अन्य सभ्यताओं की मूल्यांकन में दिलचस्पी नहीं दिखाई इसी लिए यूरोपियन इतिहासकारों के लेखन में भारत के प्रति पक्षपात दिखाई पड़ता है। यूरोपीय इतिहासकारों ने भारत के उपनिवेश बनने के बाद की तस्वीर दुनिया को दिखाई परंतु उससे पहले का महान इतिहास में दिखा ना सके इसीलिए राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने यह कार्य किया।
राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को विश्व के सामने निष्पक्ष होकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया।
राष्ट्रवादी इतिहासकारों के प्रमुख तर्क-
भारतीय संस्कृति उजागर करना
यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप कि अपनी कोई संस्कृति नहीं थी लोग यहां केवल ब्राह्मणों के कहने पर चलने वाले पुतले माने जाते थे परंतु राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने इस क्रम को तोड़ा और बताया कि प्राचीन काल से ही लोगों की अपनी सभ्यता और संस्कृति चली आ रही है कार्य के आधार पर लोगों को चार वर्णों में विभाजित किया गया है भारत की अपनी संस्कृति और एक लंबा इतिहास रहा है।
सभ्य सभ्यता
यूरोपीय इतिहासकारों का मानना था कि भारतीय इतिहास में जानने योग्य वस्तुएं बहुत कम है भारतीय उपमहाद्वीप असभ्य और अशिक्षित का समूह है परंतु वही भारतीय इतिहासकारों में यह भ्रम तोड़ा और हड़प्पा जैसी महान सभ्यताओं का तर्क दिया वही अशोक जैसे राजा और नालंदा, तक्षशिला जैसे संस्थानों का वर्णन किया।
वैदिक काल की न्यायिक सभा
भारतीय इतिहासकारों ने वैदिक काल से ही न्याय प्रिय सभा और गणतंत्र जैसी व्यवस्थाएं होने का तर्क दिया है
व्यापक साहित्य
- काशी प्रसाद जायसवाल ने गहन अध्ययन कर बताया हिंदू साहित्य एक व्यापक क्षेत्र में समाया हुआ है हिंदू साहित्य के अंतर्गत वैदिक शास्त्रीय तथा अन्य सभी ज्ञान दिये गए हैं दिए गए हैं हिंदू साहित्य एक धार्मिक ग्रंथ ना होकर शिक्षा का स्रोत है जिसमें छात्र विज्ञान, अंकगणित ,राजनीति आदि का अध्ययन करता है
- राजनीति शास्त्र पर अर्थशास्त्र किताब भारतीय सभ्यता से ही उत्पन्न हुई है
- जिसे कौटिल्य चाणक्य ने दिया है
- आर्यभट्ट द्वारा शून्य की खोज भी भारतीय सभ्यता द्वारा ही विश्व को प्रदान की गई है
- ब्रिटिश शासन के बाद शिक्षा ने औपचारिक रूप ले लिया जिससे ग्रंथ द्वारा दी जाने वाली शिक्षा एक पिंजरे में बंद हो गई और भारतीय छात्र धीरे-धीरे रचनात्मक बंद होती चली गई और रटन प्रणाली की ओर शिक्षा आगे चली गई।
- इस प्रकार राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने विश्लेषण कर यूरोपीय इतिहासकारों के तर्कों का पूरी तरह खंडन किया है
- राष्ट्रीय इतिहासकारों में रमेश चंद्र, मजूमदार राधा ,मुकुंद मुखर्जी, काशी प्रसाद जयसवाल ,रामगोपाल भंडार, रामकृष्ण गोपाल भंडार कर का नाम प्रमुख है
- राष्ट्रवादी इतिहासकार के लेखकों से यह साफ दिखाई देता है
- कि भारतीय सभ्यता , पश्चिमी सभ्यता से प्राचीनतम है
- लोकतंत्र के विचार से लेकर विज्ञान और गणित में भारतीय सभ्यता का एक अभिन्न अंग रहा है
- भारतीय सभ्यता का एक गौरवशाली इतिहास रहा है जिसे यूरोप इतिहासकार कभी दिखाने की हिम्मत ना कर सके।
10 ) बुरँजी की ऐतिहासिक व्युत्पत्ति पर चर्चा कीजिए भारतीय इतिहास के व्यापक संदर्भ में बुरँजियों के ऐतिहासिक महत्व की व्याख्या कीजिए।
Discuss the historical origin of Buranji. Explain the historical significance of buranjis in the larger context of Indian history?
सत्ताधारी वर्ग और राजाओं द्वारा अपनी परंपरा और गुणगान के लिए इतिहास को पुस्तकों में अंकित करने की परंपरा चली आ रही थी इस परंपरा के अंदर अभिलेख ,शिलालेख आदि पर इतिहास लिखे हुए प्राप्त हुए हैं प्रत्येक प्रांत में अपने शासन को प्रभावकारी बनाने के लिए इतिहास में दर्ज कराना एक आम बात हो गई थी
इसी में कश्मीर और असम के प्रांतों में बुरँजी लिखी जाती थी।
बुरँजी का अर्थ-
बुरँजी 1228 से लेकर 1826 तक असम के शासन करने वाले अहोम राजवंश के ऐतिहासिक इतिवृत्तो की एक शैली है जो असम के पूर्व औपनिवेशिक इतिहास की समझ मुख्यतः इन बुरँजियो पर ही आधारित है जिन्हें शुरुआती रूप में ताई भाषा में लिखा गया था लेकिन बाद में इसमें से अधिकांश की रचना असमी भाषा में हुई है। बुरँजी शब्द जिसे आज इतिहास का पर्यायवाची माना जाता है।
बुरँजी की उत्पत्ति-
ओहम शान निर्जातीय समूह की एक शाखा है जिन्हें ताई भी कहा जाता है और यह मूल रूप से दक्षिण पूर्व एशिया से संबंध रखते थे वह 1228 में असम पहुंचे थे एक नवीन वैज्ञानिक खोज द्वारा यह पुष्टि की गई है कि असम के ताई ,ओहम लोगों के साथ सामान्य जीन आधारित गुणों को साझा करते थे वह हम अपने इतिहास को लिखने के लिए बुरँजी का प्रयोग किया जाता था। ओहम बुरँजी को पवित्र तथा प्रत्येक प्रकार की ज्ञान का स्रोत मानते थे और राजकुमार व कुलीनो की संतान के लिए इस ज्ञान सजन के क्षेत्र में अनिवार्य माना जाता था।
बुरँजीयो ज्ञान में परंपरागत व सत्ता की वैधता से जुड़ा था और इसलिए कई कुलीन परिवार अधिकारिक स्रोत के रूप में स्वयं बुरँजी को रचने और उनको अपने पास रखने पर ध्यान देते थे। इसलिए इसका महत्व इतना अधिक था ,कि विशेष अवसरों पर इसे सार्वजनिक रूप से पढ़ा जाता था शादी विवाह के कार्यक्रम में इसका वाचन किया जाता था।
बुरँजी का ऐतिहासिक महत्व-
ज्ञान का स्रोत
बुरँजी ओहम लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण ज्ञान का स्रोत थी वह राजकुमार और कुलीन वर्गों को यह ज्ञान प्रदान किया करते थे। साधारण भाषा में जिस प्रकार वेद और पुराण उत्तर भारत में अत्यधिक महत्वपूर्ण है उसी प्रकार ओहम लोगों के लिए बुरँजी ज्ञान का स्रोत माना जाता था।
परंपरा का स्रोत
तो हम लोगों की परंपरा ओहम लोगों की परंपरा बुरँजी के अंदर लिखित रूप में समय हुई थी शादी विवाह व सार्वजनिक उत्सवों पर बुरँजी को सभी के सामने बोलकर सुनाया जाता था।
ऐतिहासिक स्रोत
पूर्वी भारत के इतिहास को जानने के लिए बुरँजी का अत्यधिक महत्व है। बुरँजी की सहायता से देउधाई बुरँजी , तुंगखंगिया बुरँजी , त्रिपुरा बुरँजी, आदि का पता चलता है। यह ऐतिहासिक स्रोत के रूप में अति महत्वपूर्ण माना जाता है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि बुरँजी ओहम लोगों द्वारा लिखा जाने वाला ऐतिहासिक स्रोत है जो आज भी इतिहास में अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं।
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